Perfect Competition and Profit Maximization
पाठ 10(i) - पूर्ण प्रतियोगिता तथा लाभ अधिकतमीकरण
अथवा
पूर्ण
प्रतियोगिता में उत्पादक का संतुलन
Perfect Competition and Profit Maximization
पूर्ण प्रतियोगिता
बाजार का अर्थ-
Meaning of Perfect Competition Market
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु के अनेकों प्रतियोगी होते हैं और किसी भी एक प्रतियोगी का वस्तु की कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता। वस्तु की कीमत क्या होगी, यह बाजार में वस्तु की मांग एवं पूर्ति पर निर्भर करता है। बाजार में अनेक उपभोक्ता होते हैं वह वस्तु को बाजार में प्रचलित कीमत पर कहीं से भी खरीद सकते हैं। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता बाजार का कोई उदाहरण नहीं मिलता।
अर्थशास्त्री पूर्ण
प्रतियोगिता की स्थिति को बाजार की एक आदर्श स्थिति के रूप में लेते हैं, भले ही वास्तविक
जीवन में इसका कोई ठोस उदाहरण न हो। बाजार की अन्य स्थितियों को भी पूर्ण प्रतियोगिता
की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में आता जाता है इसलिए पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति का बाजार
की एक महत्वपूर्ण स्थिति के रुप में अध्ययन किया जाता है।
पूर्ण प्रतियोगिता
बाजार की शर्तें/विशेषताएं/मान्यतायें
Conditions/Features/Assumptions
of Perfect Competition Market
पूर्ण प्रतियोगिता
बाजार की मुख्य शर्ते/विशेषताएं निम्नलिखित होती हैं-
1- फर्मों/विक्रेताओं की अधिक संख्या- किसी वस्तु को बेचने वाले विक्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि किसी एक फर्म द्वारा पूर्ति में की जाने वाली वृद्धि या कमी का बाजार की कुल पूर्ति पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। इसलिए कोई अकेली फर्म वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्म कीमत स्वीकारक (Price Taker) होती है अर्थात उसे बाजार में प्रचलित कीमत को स्वीकार करके उसी कीमत पर अपना उत्पादन बेचना पड़ता है।
2- क्रेताओं की अधिक संख्या- पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रेताओं की संख्या भी बहुत अधिक होती है। इसलिए कोई एक क्रेता, विक्रेता की तरह वस्तु की कीमत को प्रभावित करने के योग्य नहीं होता। उसकी मांग में होने वाली वृद्धि या कमी का बाजार मांग पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। इसलिए क्रेता भी कीमत स्वीकारक होता है।
3- एक समान या समरूप वस्तुएं (Homogeneous Products)- पूर्ण प्रतियोगिता की एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि सभी विक्रेता एक जैसी या समरूप इकाइयां ही बेचते हैं। अर्थात उनमें रूप, रंग, क्वालिटी, किस्म में किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं होता। सभी वस्तुयें समरूप होती हैं। समस्त बाजार में वस्तु की एक ही कीमत होने की वजह से विक्रेता को उसके विज्ञापन आदि पर खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं होती अर्थात पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में उत्पादक की कोई विक्रय लागत नहीं होती।
4-
पूर्ण ज्ञान- पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं
को कीमत की पूरी-पूरी जानकारी होती है। क्रेताओं को इस बात का पूर्ण ज्ञान होता है
कि भिन्न-भिन्न विक्रेता वस्तु को किस कीमत पर बेच रहे हैं ।
ऐसे ज्ञान और सजगता के फलस्वरुप बाजार में वस्तु की एक ही कीमत पाई जाती है।
5- फर्मों का स्वतंत्र प्रवेश व छोड़ना- पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में किसी उद्योग में कोई भी फर्म प्रवेश कर सकती है अथवा पुरानी फर्म उद्योग को छोड़ सकती है। फर्मो के प्रवेश पर किसी प्रकार का कोई क़ानूनी प्रतिबंध नहीं होता।
6- स्वतंत्र निर्णय या प्रतिबंधों का अभाव- क्रेताओं और विक्रेताओं में किसी वस्तु के उत्पादन, उसकी मात्रा और उसकी कीमत संबंधी कोई समझौता नहीं होता। किसी वस्तु के क्रय तथा विक्रय के संबंध में कोई प्रतिबंध नहीं होता।
7- पूर्ण गतिशीलता- पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु-बाजार तथा साधन-बाजार में पूर्ण गतिशीलता पाई जाती है। उत्पादन के साधन पूर्णतया गतिशील होते हैं। एक क्रेता उसी फर्म से वस्तु खरीदेगा जहां वे सस्ती मिलेगी तथा एक साधन अपनी सेवाएं वही बेचेगा जहां उसे अधिक कीमत मिलेगी।
8-अतिरिक्त यातायात लागत का अभाव- पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में बाजार के विभिन्न क्षेत्रों में वस्तु को भेजने के लिए कोई यातायात लागत नहीं खर्च करनी पड़ती। इस दशा में किसी वस्तु की पूरे बाजार में एक ही कीमत प्रचलित हो सकती है।। फर्म केवल अपने उत्पादन की मात्रा निर्धारित कर सकती है।
9-समान औसत आगम तथा सीमांत आगम- पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु की औसत आगम अर्थात कीमत तथा सीमांत आगम बराबर होते हैं। इसे निम्न रेखाचित्र से स्पष्ट किया जा सकता है-
रेखाचित्र में ox अक्ष पर उत्पादन और oy अक्ष पर आगम को दर्शाया गया है। DD वक्र सीमांत आगम और औसत आगम को प्रकट कर रहा है जो कि उस वस्तु की कीमत भी है। रेखाचित्र से स्पष्ट है कि फर्म चाहे उस वस्तु की 1 इकाई बेचे या 4 इकाइयाँ, उसका सीमांत आगम और औसत आगम समान ही रहता है।
शुद्ध तथा पूर्ण प्रतियोगिता
Pure and Perfect Competition
अर्थशास्त्री प्राय: शुद्ध तथा पूर्ण प्रतियोगिता में अंतर करते हैं। इनके बीच अंतर केवल डिग्री का ही होता है। शुद्ध प्रतियोगिता की धारणा पूर्ण प्रतियोगिता की धारणा की तुलना में अधिक वास्तविक तथा संकुचित होती है। शुद्ध प्रतियोगिता की धारणा का प्रतिपादन मुख्य रूप से प्रोफेसर चेम्बरलिन ने किया था। उनके अनुसार शुद्ध प्रतियोगिता बाजार कि वह दशा है जिसमें निम्नलिखित शर्ते पाई जाएं-
i) क्रेता और विक्रेता
की अधिक संख्या
ii) समरूप वस्तुएं
iii) फर्मों का स्वतंत्र
प्रवेश व छोड़ना तथा
iv) फर्मों का स्वतंत्र
निर्णय
बामोल (Baumol) ने शुद्ध प्रतियोगिता की परिभाषा निम्न प्रकार दी है, “कोई उद्योग शुद्ध प्रतियोगिता की दशा में काम करता हुआ उस समय कहा जाता है जबकि कई फर्में, एक समान पदार्थ, इच्छा अनुसार प्रवेश व छोड़ना, स्वतंत्र निर्णय लेने आदि की स्थिति में हो।”
संक्षेप में, शुद्ध प्रतियोगिता की स्थिति में पूर्ण प्रतियोगिता की दो शर्तों- i) पूर्ण ज्ञान तथा ii) पूर्ण गतिशीलता के अतिरिक्त अन्य सभी शर्तें पाई जाती हैं।
अधिकतम लाभ-उत्पादक का मुख्य उद्देश्य एवं उसके संतुलन की स्थिति
Profit Maximization-
Principal Objective of Producer and situation of his Equilibrium
प्रत्येक उत्पादक वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन इसलिए करता है जिससे कि उनकी बिक्री द्वारा उसे लाभ प्राप्त हो सके। एक उत्पादक को अपने उत्पादन अर्थात वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से जो विक्रय मूल्य प्राप्त होता है उसे आगम या संप्राप्ति कहते हैं। एक उत्पादक द्वारा अपने उत्पादन की एक निश्चित मात्रा को बेचकर जो धन प्राप्त होता है उसे कुल आगम कहते हैं।
इसके विपरीत एक
उत्पादक को किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादक को जो
कुल धन व्यय करना पड़ता है उसे कुल लागत कहते हैं।
एक उत्पादक को प्राप्त होने वाले कुल आगम (Total Revenue) उसके द्वारा खर्च की गई कुल लागत (Total Cost) से अधिक है तो कुल आगम और कुल लागत के अंतर को लाभ कहा जाएगा।
लाभ (π) = कुल आगम (TR) – कुल लागत (TC)
उदाहरण के लिए एक उत्पादक किसी वस्तु की 500 इकाइयों की बिक्री द्वारा कुल ₹2500 प्राप्त होते हैं तो 500 कॉपियों का कुल आगम ₹2500 होगा। यदि इन 500 कॉपियों का उत्पादन करने के लिए कुल ₹2000 खर्च करना पड़ता है तो इन 500 कॉपियों की लागत ₹2000 होगी। इस दशा में उत्पादक का लाभ ₹2500-₹2000=₹500 होगा।
इसके विपरीत यदि उत्पादक द्वारा किसी वस्तु के उत्पादन पर खर्च की गई कुल लागत, उस वस्तु की बिक्री से प्राप्त कुल आगम से अधिक है तो उत्पादक को हानि होगी
हानि (Loss) = कुल लागत
(TC) – कुल आगम (TR)
एक उत्पादक उस समय संतुलन की स्थिति में होता है जब उसे अपने वर्तमान उत्पादन की मात्रा से संतुष्टि होती है। उत्पादन में कमी करने या वृद्धि करने की उसमें कोई प्रवृत्ति नहीं पाई जाती यह अवस्था उस समय होती है जब उत्पादक को अधिकतम लाभ प्राप्त होंगे।
हैन्सन के अनुसार, “एक उत्पादक उस समय संतुलन में होगा जब उत्पादन में कमी
करना या वृद्धि करना लाभदायक नहीं होगा।”
कौत्तसुवियानी के शब्दों में, “एक उत्पादक उस समय संतुलन में होगा जब उसके लाभ अधिकतम होंगे।”
मैकोनल के शब्दों में, “अल्पकाल में एक फर्म उस समय संतुलन में होती है जब उस मात्रा का उत्पादन करती है जिस पर उसके लाभ अधिकतम होते हैं तथा हानियां न्यूनतम होती हैं।”
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक का संतुलन-अल्पकालीन और दीर्घकालीन परिस्थितियाँ
Producer’s Equilibrium under Perfect Competition- Short Term and Long term situations
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की स्थिति में उत्पादक के संतुलन का अध्ययन दो परिस्थितियों में किया जाता है-
a) उत्पादक का अल्पकालीन संतुलन और
b) उत्पादक का दीर्घकालीन संतुलन
उत्पादक का अल्पकालीन संतुलन-
Short run Equilibrium of the Producer
अल्पकाल में एक प्रतियोगी फर्म का प्लांट स्थिर होता है। वह परिवर्तनशील साधनों
में परिवर्तन करके उत्पादन में इस प्रकार से परिवर्तन करने का प्रयत्न करती है कि उसका
लाभ अधिकतम या हानि न्यूनतम हो जाए।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए फर्म निम्न में से किसी एक विधि का प्रयोग करती
है-
A) कुल आगम तथा कुल लागत विधि
Total Revenue and Total Cost approach
अल्पकाल में एक फर्म उत्पादन की उस मात्रा का उत्पादन करेगी जिस पर उसके लाभ अधिकतम हो या हानि न्यूनतम हो। इन दोनों स्थितियों का वर्णन निम्न ढंग से किया जा सकता है-
1- अधिकतम लाभ
Maximum Profit
एक फर्म संतुलन की स्थिति में उस समय होती है जब उसे अधिकतम कुल लाभ प्राप्त
हो रहे हैं। एक फर्म के कुल लाभ का अनुमान कुल आगम में से कुल लागत को हटाकर लगाया
जा सकता है।
लाभ (π) = कुल आगम (TR) – कुल लागत (TC)
एक फर्म उस समय संतुलन में होती है जब वह किसी वस्तु की उस मात्रा का उत्पादन कर रही है जिस पर कुल आगम तथा कुल लागत का अंतर अर्थात कुल लाभ अधिकतम होते हैं।
इसे निम्नलिखित रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है-
profit maximization |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर वस्तु की मात्रा तथा OY अक्ष पर लागत, आगम तथा लाभ प्रकट किए गए हैं। TR कुल आगम वक्र है। यह वक्र एक सीधी रेखा है जो प्रारंभिक बिंदु O से 45 डिग्री के कोण पर ऊपर उठ रही है। इससे प्रकट होता है कि वस्तु की कीमत स्थिर है। यह स्थिति पूर्ण प्रतियोगिता में संभव होती है। TC कुल लागत वक्र है तथा TPC कुल लाभ वक्र है।
व्याख्या :
i) जब फर्म OM1 से कम उत्पादन करती है तो उसे हानि उठानी पड़ती है क्योंकि O
से M1 तक TC वक्र TR वक्र के ऊपर है अर्थात कुल लागत, कुल आगम से अधिक है।
(TC>TR)
ii) जब फर्म OM1 मात्रा का उत्पादन करती है तो फर्म की हानि शून्य हो जाएगी और उसके कुल लाभ भी शुन्य होंगे क्योंकि इस स्थिति में कुल आगम, कुल लागत के बराबर है। अर्थशास्त्र की भाषा में बिंदु A को जहां फर्म के कुल लाभ और हानि शून्य है, सम विच्छेद बिंदु (Break-Even Point) कहा जाता है क्योंकि इस बिंदु पर लाभ तथा हानि दोनों शून्य होते हैं।
iii) बिन्दु M1 से M2 तक उत्पादन के सभी स्तरों पर फर्म को लाभ प्राप्त हो रहे हैं क्योंकि इस स्थिति में कुल आगम कुल लागत से अधिक है। बिंदु B के पश्चात TC वक्र TR वक्र के ऊपर है। रेखाचित्र से पता चलता है कि जब फर्म OM का उत्पादन कर रही है तो TR तथा TC का अंतर RS अधिकतम होता है। TPC वक्र से ज्ञात होता है कि उत्पादन की OM मात्रा पर फर्म को अधिकतम लाभ मिल रहे हैं क्योंकि उत्पादन की मात्रा के पश्चात TPC वक्र नीचे की ओर गिरने लगती है। OM मात्रा पर कुल लाभ अधिकतम है अतः इस मात्रा का उत्पादन करने पर फर्म संतुलन की स्थिति में होती है।
2- न्यूनतम हानि
Minimum Loss
इस स्थिति को हम निम्न रेखाचित्र से स्पष्ट कर सकते हैं-
Minimum Loss |
TC कुल लागत वक्र तथा TVC कुल परिवर्तनशील लागत वक्र है। TR कुल आगम वक्र है। TR वक्र TVC को बिंदु B पर छू रही है इसे ज्ञात होता है कि फर्म को केवल परिवर्तनशील लागत प्राप्त हो रही है तथा उसे स्थिर लागत की हानि हो रही है। यह हानि AB या OK (TFC=TC-TVC) के बराबर है। स्थिर लागत AB अथवा OK की हानि न्यूनतम होती है जो फर्म को उस समय भी उठानी पड़ेगी जब वह अल्पकाल कि में अपना उत्पादन बंद भी कर देती हैं।
B) सीमांत आगम तथा सीमांत लागत विधि
Marginal Revenue and Marginal Cost Approach
फर्म के संतुलन की स्थिति को ज्ञात करने का दूसरा और अधिक प्रचलित तरीका सीमांत आगम तथा सीमांत लागत विधि है। किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जो अंतर होता है उसे सीमांत लागत (Marginal Cost) कहते हैं” इसी प्रकार किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री करने से कुल आगम में जो अंतर आता है उसे सीमांत आगम (Marginal Revenue) कहा जाता है। एक फर्म अधिकतम लाभ की स्थिति का ज्ञान करने के लिए सीमांत आगम तथा सीमांत लागत की तुलना करती जाती हैं।
1) यदि सीमांत आगम, सीमांत लागत से अधिक है (MR>MC) तथा सीमांत लागत बढ़ रही है तो फर्म अपने उत्पादन में वृद्धि करेगी
एक फर्म तब तक उत्पादन करती जाएगी जब तक सीमांत आगम (MR), सीमांत लागत (MC)
से अधिक होता है। इसका कारण यह है कि इस स्थिति में उत्पादन की प्रत्येक इकाई की बिक्री
से प्राप्त आय, प्रति इकाई उत्पादन लागत से अधिक होती है। इसलिए उत्पादन की प्रत्येक
अतिरिक्त इकाई के कारण लाभ में वृद्धि होगी।
2) सीमांत लागत बढ़ते रहने पर यदि सीमांत आगम (MR), सीमांत लागत (MC) से कम है (MR<MC) तो फर्म अपने उत्पादन में कमी करेगी
एक फर्म अपना उत्पादन करना कम कर देगी जब प्रति इकाई सीमांत आगम (MR), सीमांत
लागत (MC) से कम होता है। इसका कारण यह है कि इस स्थिति में फर्म उत्पादन की प्रत्येक
इकाई की बिक्री से जितनी आय प्राप्त करेगी उससे अधिक लागत खर्च करेगी। इसलिए उत्पादन
के प्रति अतिरिक्त इकाई के कारण हानि होगी।
3) यदि सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत (MC) के बराबर (MR=MC) है तथा सीमांत लागत बढ़ रही है तो फर्म में संतुलन उत्पादन की स्थिति प्राप्त कर ली है
एक फर्म अपने लाभ को अधिकतम या हानि को न्यूनतम उस स्थिति में कर सकेगी जिसमें
सीमांत आगम (MR) सीमांत लागत (MC) के बराबर होगी इस स्थिति में फर्म संतुलन में होती
है।
फर्म का संतुलन
एक फर्म उस समय उत्पादन में किसी प्रकार का परिवर्तन पसंद नहीं करेगी जब सीमांत
लागत सीमांत आगम के बराबर हो जाएगी। (MR=MC) यह फर्म के संतुलन की स्थिति होती है।
फर्म के संतुलन की पहली शर्त यह है कि संतुलन की स्थिति में सीमांत लागत, सीमांत
आगम के बराबर होनी चाहिए यह संतुलन की आवश्यक शर्त (Necessary
Condition) है
यदि फर्म की सीमांत लागत सीमांत आगम के बराबर हो, परंतु सभी फर्म को अधिकतम
लाभ नहीं मिल सकता है। इसलिए फर्म के संतुलन के लिए दूसरी शर्त भी पूरी होनी चाहिए
कि सीमांत लागत वक्र, सीमांत आगम वक्र को नीचे से काटे अर्थात सीमांत लागत वक्र का
ढलान, सीमांत आगम वक्र के ढलान से अधिक होना चाहिए। (पर्याप्त शर्त- Sufficient Condition)
अतएव सीमांत विश्लेषण के अनुसार एक फर्म संतुलन की अवस्था में तब ही होती है जब निम्नलिखित 2 शर्ते पूरी हो-
1) MC=MR (आवश्यक शर्त या First Order Condition)
2) MC वक्र MR वक्र को नीचे से काटे (पर्याप्त
शर्त या Second Order Condition)
अथवा
जहां MC=MR है तथा MC का ढलान
धनात्मक (Positive) होना चाहिए।
एक फर्म के संतुलन के लिए इन दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
इसे हम निम्न रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं
equilibrium under perfect competition |
रेखा चित्र में PP रेखा औसत आगम अर्थात कीमत (AR) तथा सीमांत आगम (MR) को प्रकट कर रही है। रेखाचित्र से स्पष्ट है कि सीमांत लागत वक्र (MC) सीमांत आगम वक्र (MR) को दो बिंदुओं A तथा E पर काट रही है अर्थात इन दोनों बिंदुओं पर MR=MC है। बिन्दु A से पता चलता है कि फर्म ON वस्तुओं का उत्पादन कर रही है। फर्म ON से OM तक जितनी अधिक वस्तुओं का उत्पादन करती जाएगी, सीमांत लागत सीमांत आगम से कम होती जाएगी तथा फर्म के लाभ बढ़ते जाएंगे। अतः बिंदु A संतुलन की अवस्था को प्रकट नहीं करेगा। इसके विपरीत बिंदु E से पता चलता है कि फर्म OM मात्रा का उत्पादन कर रही है। यदि फर्म OM से अधिक उत्पादन करेगी तो फर्म की सीमांत लागत, सीमांत आगम से अधिक हो जाएगी तथा फर्म को हानि उठानी पड़ेगी।
बिंदु E पर दोनों शर्ते भी पूरी हो रही है-
1) सीमांत आगम तथा सीमांत आगम (MC=MR) बराबर है।
2) सीमांत आगम वक्र, बिंदु E पर सीमांत आगम वक्र को नीचे से काट रही है।
अतः बिंदु E फर्म के संतुलन को प्रकट कर रहा है।
WonderFul notes sir
जवाब देंहटाएंNice work sir
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